देहरादून : उत्तराखंड की गढ़वाली बोली/भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में प्रवेश होने का सभी को इंतज़ार है। आजादी के बाद से लोक बोली व भाषा को उसका हक दिलाने के लिए छोटे-बड़े मंचों पर लगातार मांग उठती रही है लेकिन आज तक इसको पूरा नहीं किया सका है। इसकी पैरवी नहीं हो पाई। लोक भाषा से जुड़े साहित्यकारों ने भी गढ़वाली बोली-भाषा को उसका मान दिलाने की मांग की है। केंद्रीय मंत्री रहते हुए सतपाल महाराज भी गढ़वाली बोली-भाषा की पैरवी कर चुके हैं। बतादें कि लोक साहित्य से जुड़े कुछ जानकार गढ़वाली भाषा में लिखित साहित्य का सृजन वर्ष 1750 तो कुछ गढ़वाल नरेश सुदर्शन शाह (1815-1856) से होना मानते हैं। रमाकांत बेंजवाल और बीना बेंजवाल का कहना है कि गढ़वाली बोली-भाषा स्वयं में समृद्ध है। इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाना बेहद ख़ास और जरूरी भी है। ऐसे में जरूरी है कि गढ़वाली बोली-भाषा को आठवीं अनुसूचित में शामिल करने की बात लोकसभा चुनाव का मुद्दा बने।
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